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Channel: Navbharat Times

दिल्ली में कहां है ‘घटोत्कच का गांव’

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वीरेंद्र वर्मा
दिल्ली में एक ऐसा भी गांव भी है जिसके जंगलों में कभी महाभारत कालीन घटोत्कच रहता था। दिलचस्प बात यह है कि इस गांव का नाम भी घटोत्कच से जुड़ा हुआ है। यह गांव नजफगढ़ से करीब 18 किलोमीटर दूर हरियाणा बॉर्डर पर है। गांव का नाम है ढांसा। यूं तो करीब 850 साल पुराना है लेकिन आज भी यहां के लोगों की जुबान पर घटोत्कच के किस्से हैं।
महाभारत काल में जब पांडव अज्ञातवास के दौरान वन में विचरण कर रहे थे तो भीम की मुलाकात हिडिम्बा नाम की राक्षसी से हुई थी। हिडिम्बा और भीम की शादी हुई और उनसे घटोत्कच पैदा हुआ। युवा अवस्था में ही घटोत्कच को विरक्ति हो गई और वह घूमते घूमते ढांसा के जंगलों के नजदीक आ गया। यह जंगल बेहद खूबसूरत था। ढांसा गांव के एक पुराने शिक्षक अशोक कुमार कौशिक बताते हैं कि इसी जंगल में घटोत्कच ने तपस्या की थी। वह जंगल में कब तक रहा इसका कोई प्रमाण नहीं मिलते। इस तरह की लोक कहानियां उनके पूर्वज सुनाते आ रहे हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी इस तरह की कहानियां सुनायी जा रही हैं।
घटोत्कच ढांसा के जंगलों में तपस्या करने लगा। घटोत्कच ने यहां पर दृढ़ासान की मुद्रा में तपस्या की। बाद में दृढ़ासन का नाम बिगड़कर ढढ़ांसा हो गया। यह नाम बिगड़ते बिगड़ते अब ढांसा के नाम से जाना जाने लगा। अशोक कुमार कौशिक बताते हैं कि घटोत्कच के दृढ़ासान से ही इस गांव का नाम ढांसा पड़ा।
ढांसा के पास जंगल तो बहुत खूबसूरत था लेकिन आसपास पानी के लिए कोई सरोवर नहीं था। अशोक कुमार कौशिक बताते हैं कि लोक कहानी के मुताबिक ढांसा को अपनी तपस्यास्थली बनाने से पहले पानी की कमी को देखते हुए घटोत्कच ने घुटने से जमीन पर प्रहार किया उसके कारण यहां पर घड़े के आकार का एक सरोवर बन गया। घटोत्कच के नाम से ही इसे ‘घड़ोई’ कहते हैं। इस सरोवर को अब सीमेंटेड कर दिया गया है। बच्चों के लिए यह अब एक खेल मैदान बना हुआ है। जब यहां मेला लगता है तो इसे टूयबवेल के जरिए पानी से भरा जाता है।
गांव के प्रधान चौधरी खजान सिंह बताते हैं कि हर साल यहां पर सितंबर महीने में दादा बूढ़े का मेला लगता है। यह मेला भी घटोत्कच के नाम पर ही लगता है। मेले में भजन कीर्तन, भंडारा बच्चों के लिए झूलों का इंतजाम किया जाता है मेले में हजारों लोग पहुंचते हैं। इसके अलावा यहां पर एक बारादरी है, दादा बूढ़े का मंदिर है, चार धर्मशालाएं हैं और एक परिक्रमा मार्ग है। पहले सिर्फ ढांसा के लिए ही इस मंदिर को ग्राम देवता मानते थे, लेकिन ढांसा से निकलकर ही ईशापुर, मलिकपुर, समय पुर और उजवा गांव बने। अब कुल मिलाकर पांच गांव दादा बूढ़े के मंदिर को ग्राम देवता मानते हैं।
यहां घूमना चाहते हैं तो ऐसे पहुंचें : ढांसा गांव करीब 850 साल पुराना गांव हैं। यहां करीब 20 हजार लोग रहते हैं। यह गांव दिल्ली के साउथ वेस्ट जिले में पड़ता है। दिल्ली का यह अंतिम गांव है इसके बाद हरियाणा की सीमा शुरू हो जाती है। अगर आपको इस गांव में पहुंचना है तो कनॉट प्लेस से मेट्रो के जरिए द्वारका तक मेट्रो के जरिए पहुंचे। उसके बाद नजफगढ़ होते हुए ढांसा पहुंचा जा सकता है। नजफगढ़ से यह 18 किलोमीटर दूर है।

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अब जिन्न नहीं आते इस किले में

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अखिलेश चंद्र
1206 में कुतबुद्दीन ऐबक के दिल्ली का सुल्तान बनने से इसके इतिहास में नया चैप्टर जुड़ गया। इससे पहले दिल्ली पर राजपूत राजा का शासन था। मुगलों के आने तक करीब 320 साल तक 5 वंशों ने दिल्ली पर शासन किया। इन्हीं में से एक तुगलक वंश (1321-1414) के 11 शासकों ने करीब 100 साल तक राज चलाया।

तुगलक वंश के तीसरे शासक फिरोजशाह तुगलक (1351-1388) ने दिल्ली में एक नया शहर बसाया। इसका नाम था-फिरोजाबाद। अभी जो कोटला फिरोजशाह है यह उसके दुर्ग का काम करता था। इसे कुश्के-फिरोज यानी फिरोज का महल कहा जाता था। ऐसा माना जाता है कि फिरोजाबाद, हौज खास से पीर गायब (हिंदूराव हॉस्पटिल तक) तक फैला हुआ था। मगर, इतनी लंबी दीवार के होने की निशानी नहीं मिली है। इतिहासकार फिरोज़ाबाद को दिल्ली का पांचवां शहर मानते हैं।

फिलहाल इस दुर्ग के अंदर बची कुछ इमारतों में एक मस्जिद है। इसके साथ ही इसमें अशोक स्तंभ है, जो एक पिरामिड जैसी इमारत पर खड़ा है। किले में एक गोलाकार बावली भी है। इतिहासकारों का मानना है कि कोटला फिरोजशाह में कई महल थे। हालांकि, इनमें से किसी की पहचान नहीं हो पाई है। तीन-चार इमारतों को छोड़ दें तो अंदर कुछ बचा नहीं है। केवल इमारतों के अवशेष हैं।

किले में तीन मंजिला पिरामिडीय इमारत है। यह पत्थरों से बनाई गई है। इसकी हर मंजिल की ऊंचाई कम होती गई है। इमारत की छत पर फिरोजशाह ने अंबाला के टोपरा से स्तंभ लाकर लगवाया था। इस पर अशोक की राजाज्ञा अंकित हैं। यह ब्राह्मी लिपि में है। मौर्य शासक अशोक के इस स्तंभ की ऊंचाई करीब 13 मीटर है। इसे सबसे पहले 1837 में जेम्स प्रिंसेप ने पढ़ा था। ऐसा ही दूसरा स्तंभ फिरोजशाह ने मेरठ के आसपास से मंगवाया था। उसे हिंदूराव अस्पताल के पास लगवाया। इतिहासकारों का कहना है कि इन दोनों स्तंभों को नदी के जरिए लाया गया था।


कोटला फिरोजशाह के अंदर की मस्जिद ऊंचाई वाले आधार पर खड़ी है। इसका नाम जामी मस्जिद है। मस्जिद की एक दीवार ही बची है। तुगलक काल में यह सबसे बड़ी मस्जिद थी। तैमूर ने 1398 में इस मस्जिद में इबादत की थी। यह मस्जिद तैमूर को इतनी अच्छी लगी कि इसकी जैसी ही मस्जिद समरकंद में बनवाई। इतिहासकार मानते हैं कि मस्जिद रॉयल महिलाओं के लिए बनवाई गई थी। किले में मौजूद बावली में आज भी पानी है। इसका इस्तेमाल नहाने और गर्मी से बचने के लिए किया जाता था।

फिरोजशाह तुगलक को इतिहास, शिकार, सिंचाई और वास्तुकला में काफी रुचि थी। उन्होंने कई शिकारगाह जैसे- मालचा महल, भूली भटियारी का महल और पीर गायब बनवाए। कई शहरों की बुनियाद डाली। कुतुब मीनार, सूरज कुंड की मरम्मत करवाई। हौज खास के तालाब की भी मरम्मत फिरोजशाह ने करवाई थी। वहीं उनका मकबरा भी है। फिरोजशाह के शासन में दिल्ली में कई मस्जिदें भी बनाई गईं।

क्या वाकई जिन्न रहते हैं इस किले में? : लोगों का ऐसा विश्वास है कि कोटला फिरोजशाह में जिन्न रहते हैं और उनसे जो भी मांगा जाए वह मिल जाता है। हर गुरुवार को किले बड़ी संख्या में लोग आते हैं। वे अगरबत्ती, दीये, दूध और कई तरह के अनाज लेकर आते हैं। हालांकि, इस किले के संरक्षण की जिम्मेदारी निभा रहा आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया इसे लोगों का अन्धविश्वास मानता है और लोगों को ऐतिहासिक इमारत को नुकसान न पहुंचाने की गुजारिश भी करता रहा है। उसका मानना है कि इस अन्धविश्वास की वजह से इमारत को बहुत ही नुकसान पहुंचता है। अगरबत्ती और दीये से इमारत गंदी होती है और अनाज फैलाने से चूहों का आतंक बढ़ जाता है। लोगों का अन्धविश्वास करीब 40-50 साल से इस इमारत को खराब कर रहा है।

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इस गांव के बुजुर्गों ने रखी थी लाल किले की नींव!

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देश की आन, बान और शान के प्रतीक जिस लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री हर साल 15 अगस्त के दिन झंडा फहराकर देश को संबोधित करते हैं उसकी नीव में पहली ईंट दिल्ली के ही एक गांव के बुजुर्गों ने रखी थी। दिल्ली के सबसे पुराने गांवों में शुमार यह गांव है पालम। इस ऐतिहासिक गांव से जुड़ी हैं तमाम ऐसी कहानियां, जो कम ही लोग जानते हैं। पालम गांव की चौधराहट से जुड़े किशनचंद सोलंकी बताते है कि जब 1639 में मुगल बादशाह ने लाल किले की नींव रखी थी तो पालम गांव के पांच बुजुर्गों को सम्मान के तौर पर बुलाया था। इन बुजुर्गों ने ही लाल किले की नींव में ईंट रखी थी, क्योंकि गांव को 360 गांव की चौधराहट मिली हुई थी। गांव के ही कुछ और लोगों का यह भी कहना है कि पालम गांव की मिट्टी में काफी शक्ति है, इसलिए भी बुजुर्गों को बुलाया गया था, ताकि किले की नींव मजबूत रहे।

भारत में मुगल साम्राज्य की नींव रखने वाला शासक बाबर पालम गांव में आकर ठहरा था। किशनचंद बताते हैं कि जब बाबर दिल्ली आया तो पालम गांव में ही आकर ठहरा था, ऐसा भी सुनने में आता है कि उसने पालम को अपनी राजधानी बनाया था। बाद में अपनी राजधानी यहां से बदली। आज भी गांव में बाबर के समय की एक मस्जिद है, साथ ही उसके समय बनाई गई बावड़ी है। इसलिए भी इस गांव का बहुत ज्यादा ऐतिहासिक महत्व है।

पालम गांव को बावनी भी बोला जाता है, क्योंकि पालम गांव की जमीन 52 गांवों से लगती है इसलिए इसे बावनी कहा जाता है। बलजीत सिंह सोलंकी बताते हैं कि दिल्ली एयरपोर्ट के लिए इस गांव की 1200 बीघा जमीन गयी ह। इसलिए गांव के नाम पर ही इस एयरपोर्ट का नाम पड़ा। इतना ही नहीं, इस गांव से 12 गांव निकले हैं। ये गांव हैं पालम, बागडौला, शाहबाद मौहम्मदपुर, मटियाला, बिंदापुर, असालतपुर, डाबड़ी, नसीरपुर, गोयला खुर्द, नांगल राया, पूठकलां। ये सभी गांव दादा देव महाराज को आराध्य देव मानते हैं। दादा देव मंदिर में वैसे तो हर साल दशहरा पर मेला लगता है जिसमें लाखों लोग आते हैं। इसके अलावा हर साल तीज पर एक दंगल कराया जाता है। इस दंगल में जीतने वाले पहलवान को एक लाख का इनाम दिया जाता है। दंगल में दिल्ली, हरियाणा, यूपी, राजस्थान सहित कई राज्यों से पहलवान आते हैं।


क्या है पालम गांव का इतिहास

पालम गांव का 1200 साल पुराना इतिहास है। श्री दादा देव मंदिर प्रबंधन समिति के अध्यक्ष बलजीत सिंह सोलंकी बताते हैं कि यह गांव सिर्फ ऐतिहासिक ही नहीं है बल्कि आस्था से भी जुड़ा हुआ है। हमारे पूर्वज टोंक जिले के टोडा रॉय सिंह गांव से आए थे। टोडा रॉय सिंह में दादा देव महाराज रहते थे। वे सारा दिन एक सिला पर बैठकर ध्यान में विलीन रहते थे। ऐसा भी लोक कहानी है कि उनके तप से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें दिव्य शक्तियां प्रदान कीं। इन दिव्य शक्तियों के जरिए वे गांव वालों का भला करते थे। कुछ समय बाद वे शिला पर बैठे हुए ही ब्रह्मलीन हो गए। कुछ अरसे बाद इस गांव में अकाल पड़ गया। गांव वालों ने गांव छोड़कर जाने का निर्णय लिया, लेकिन वह भारी सिला वे बैलगाड़ी पर रखकर वहां से चल दिए। रास्ते में उन्हें भविष्यवाणी हुई की जहां भी ये शिला गिर जाए आप सभी वहां पर ही बस जाना। ये लोग चलते चलते पालम गांव आ गए। यहां आकर यह शिला गिर गई। लोगों ने वहां ही रहना शुरू कर दिया। आज जहां शिला है, वहां पर श्री दादा देव जी का एक भव्य मंदिर है। लोग यहां दूर-दूर से मन्नतें मांगने आते हैं।

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दिल्ली में मुरादाबाद की पहाड़ी

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वीरेंद्र वर्मा, नई दिल्ली

आप यह पढ़कर चौंक जाएंगे कि दिल्ली में मुरादाबाद की पहाड़ी है। आप सोच रहें होंगे कि आखिर मुरादाबाद का दिल्ली से क्या कनेक्शन है। दिल्ली में कहां है मुरादाबाद की पहाड़ी। इस बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। इस पहाड़ी पर एक कई सौ साल पुरानी शाही मस्जिद है और एक दरगाह भी।

दिल्ली की इस मुरादाबादी पहाड़ी से मुरादाबाद का कोई कनेक्शन नहीं है। मुरादाबाद की पहाड़ी वसंत विहार के पास है। वैसे इस पहाड़ी के चारों ओर का इलाका आर्मी क्षेत्र से घिरा हुआ है। यह एरिया दिल्ली कैंट के तहत ही आता है। कहा जाता है कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने यह जमीन वक्फ बोर्ड को दी थी।

कैसे पड़ा पहाड़ी का नाम मुरादाबादी: शाही मस्जिद मुरादाबाद पहाड़ी के इमाम मौलाना शाह रशीद बताते हैं कि एक बहुत ही पहुंचे हुए पीर हुए हैं उनका नाम था मुराद अली शाह। उनके बारे में ज्यादा तो जानकारी नहीं मिलती लेकिन कहा जाता है कि उनके नाम पर ही इस पूरी पहाड़ी का नाम मुरादाबाद की पहाड़ी पड़ा। आज भी मस्जिद के बाईं ओर के छोर पर उनकी एक मजार है।

लोग आते हैं मन्नत मांगने : इमाम मौलाना शाह बताते हैं कि हर गुरुवार को इस मजार पर लोग दीया जलाने आते हैं। इस मजार पर अधिकतर गैर मुसलमान लोग मन्नत मांगने आते हैं। लोगों का कहना है कि यहां आकर दिल को बहुत ही सकून मिलता है। यहां पर एक अलग तरह का रूहानी अहसास होता है। लोगों का कहना है कि वे जो मन्नत मांगते हैं या जो मुराद होती है वह पूरी हो जाती है। यह सिलसिला काफी सालों से चल रहा है।

कैसे पहुंचें पहाड़ी तक: इस पहाड़ी के बारे में कम लोग जानते हैं। वसंत विहार के पश्चिमी मार्ग पर आकर वसंत विहार क्लब के सामने से एक रास्ता गया है। यह रास्ता डीडीए के बायो डायवर्सिटी पार्क की ओर जाता है। इस पार्क के पहाड़ी वाले रास्ते से होकर ऊपर जाने पर एक बड़ा-सा लोहे का गेट आएगा। इस गेट से निकलकर जैसे ही अंदर जाएंगे तो लगेगा जैसे बहुत ही खूबसूरत जगह पर आ गए हैं। बाईं ओर एक खूबसूरत-सी मस्जिद नजर आएगी और दाईं ओर जंगल। मस्जिद पहाड़ी पर है। इस पहाड़ी को मुरादाबाद की पहाड़ी कहते हैं।

सैकड़ों साल पुरानी मस्जिद है आबाद : इमाम मौलाना रशीद बताते हैं कि पिछले 50 साल से ज्यादा समय से यह मस्जिद आबाद है। इसमें रोज नमाज अदा की जाती है। यह मस्जिद कितनी पुरानी है इसका अंदाजा तो नहीं है, लेकिन यह मस्जिद सैकड़ों साल पुरानी है। आसपास रहने वाले कुछ लोगों का कहना है कि यह मस्जिद मुगल काल के आसपास की है। आज भी यह मस्जिद अच्छी हालत में है। मस्जिद में बड़े-बड़े दरवाजे हैं। दो गुंबद हैं जो इसकी भव्यता को बढ़ाते हैं। मस्जिद के सामने बड़ा-सा चबूतरा और गार्डन है, जो इसे और भी सुंदर बनाता है।
मस्जिद के अंदर ही एक मदरसा चलता है, जहां पर बच्चे तालीम हासिल करते हैं। इमाम के मुताबिक करीब 200 के आसपास बच्चे इस समय यहां तालीम ले रहे हैं।

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3 हजार साल पुराने राज छिपे हैं इस किले में

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अखिलेश चंद्र

दिल्ली में वैसे तो बहुत सारे किले हैं, लेकिन पुराने किले में ऐसी कई बातें हैं, जो उसे खास और सबसे अलग करती हैं। प्रगति मैदान के पास मौजूद इस जगह से 3 हजार साल से भी ज्यादा समय पहले दिल्ली पर राज किया गया था। इसके बाद से यह लगातार आबाद रही है। पुराने किले को 16वीं शताब्दी में शेरशाह सूरी ने बनवाया था। मगर, इससे ढाई साल हजार साल पहले से लोग यहां रहते थे। ऐसा कहा जाता है कि पांडवों की राजधानी इंद्रप्रस्थ यहीं थी। उन्होंने सोने के पिलर और कीमती पत्थरों से अपने महल बनवाए थे। चित्र वाले भूरे रंग के बर्तनों के अवशेष करीब-करीब हर खुदाई में पुराने किले से मिले हैं। ऐसे बर्तन महाभारत की कहानी से जुड़े कई और जगह भी मिले हैं। ये करीब 1000 ईसा पूर्व के थे। इससे पुराने किले से पांडवों का संबंध मजबूत होता है। इसके अलावा, 7-8 शासकों के समय की निशानी इस किले से मिली है।


पांडवों की राजधानी का पता लगाने के लिए कई बार किले में खुदाई की गई। सबसे पहले सन् 1955 में पुराने किले के दक्षिण पूर्वी हिस्से में खुदाई की गई थी। इसमें चित्र वाले भूरे रंग के बर्तनों के टुकड़े मिले थे। इसके बाद 1969 में दोबारा खुदाई शुरू की गई। यह 1973 तक चलती रही। हालांकि, चित्रित बर्तनों वाले लोगों की बस्ती का पता नहीं चला। मौर्य काल से शुरुआत से मुगल काल तक के कुछ न कुछ अवशेष जरूर मिले। इसके बाद साल 2014 में फिर से उसी हिस्से के आसपास खुदाई एएसआई ने की। इसमें भी चित्रित भूरे रंग के बर्तनों के कुछ टुकड़े मिले। कोई स्ट्रक्चर सामने नहीं आया। मगर, मौर्य, शुंग, कुषाण, गुप्त, राजपूत, सल्तनत और मुगल पीरिएड के अवशेष मिलते रहे। इसमें मौर्यकालीन कुआं (करीब 2 हजार साल पुराना) सामने आया। गुप्त काल के घरों की निशानी भी खुदाई में मिली।

2017-18 में भी पांडवों की राजधानी इंद्रप्रस्थ का पता लगाने को कोशिश हुई। करीब 7 महीने की खुदाई की गई। 30 फुट नीचे तक जाने पर भी छिटपुट चित्रित भूरे रंग के बर्तनों के टुकड़े ही मिले। महाभारतकालीन इमारत होने की कोई निशानी नहीं मिली। शुंग और कुषाण काल की मूर्तियां और सिक्के भी मिले।

इतिहासकारों का मानना है कि शेरशाह सूरी (1538-45) ने दीनपनाह नगर में तोड़फोड़ की, जिसे मुगल बादशाह हुमायूं ने बनवाया था। इसी जगह उन्होंने किला बनवाया जो पुराना किला के नाम से जाना जाता है। इस किले में उत्तर, दक्षिण और पश्चिम में तीन गेट हैं। अभी पश्चिमी गेट से किले में एंट्री होती है। ऐसा माना जाता है कि शेरशाह सूरी पुराना किला बनाने का काम पूरा नहीं कर पाए थे और इसे हुमायूं ने ही कंप्लीट करवाया। यह किला यमुना नदी के किनारे था।

यहां की बावली में आज भी है पानी : किले में आज मौजूद इमारतों में 1541 में बनाई गई किला-ए-कुहना मस्जिद है। इसके आंगन में एक तालाब भी था, जिसमें फव्वारा लगा था। इस मस्जिद को लोदी शैली से मुगल शैली में परिवर्तन की मिसाल के तौर पर देखा जाता है। मस्जिद के पास ही लाल बलुआ पत्थर से बनी दोमंजिली इमारत है, जिसे शेर मंडल कहते हैं। यह कहा जाता है कि मुगल बादशाह हुमायूं इसका इस्तेमाल लाइब्रेरी के रूप में करते थे। इसकी सीढ़ियों से गिरकर ही उनकी मौत हुई थी। इसके अलावा, शेर मंडल के पास एक बावली भी है, जिसमें पानी है। दिल्ली की ऐतिहासिक बावलियों में से गिनी-चुनी में ही आज पानी है। किले में घुसते ही दाईं ओर म्यूजियम है। इसमें खुदाई में निकले अवशेषों को लोगों के देखने के लिए रखा गया है। पुराने किले में कुछ आधुनिक स्ट्रक्चर भी हैं। इनमें आजादी के बाद पाकिस्तान जाने वाले शरणार्थियों को रखा गया था।



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